
हरि न्यूज
हरिद्वार। सामाजिक कार्यकर्ता जितेन्द्र सनातनी ने बताया कि न जाने कितने पुरुष अंदर ही अंदर घुट घुट कर मर रहे हैं, झूठे आरोपों में घर में बाहर सब जगह आपके सामने कई सारे ऐसे एग्जांपल मिल जाएंगे जिन्होंने लाइव आकर आत्महत्या की है और कहा भी गया है मानव शर्मा और न जाने कितने लोगों ने जिन्होंने अभी आत्महत्या की थी उन्होंने तो यह तक कहा था कि पुरुषों की भी सुनो वह भी समाज का हिस्सा है,
मैं नहीं कहता कि हर औरत गुनहगार है पर जिस पर कैस हुआ है वह हर मर्द भी तो गुनहगार नहीं है, उसको फसाया जाता है उसे पत्नी द्वारा उससे खर्च मांगा जाता है पुलिस उसको मानसिक प्रताड़ना करती है उसका परिवार इस सब से होकर गुजरता है, आदमी के साथ दुनिया भर की चीज की जाती हैं सामाजिक रूप से मानसिक रूप से शारीरिक रूप से उसको प्रताड़ित किया जाता है,
पुरुष जाए तो कहां जाए आज यह लेख लिखने का मेरा इतना ही मकसद है कि जिन पर यह अत्याचार हो रहा है वह खुलेआम आकर अपनी आवाज़ उठाएं सभी सही नहीं है और सभी गलत नहीं है पर बिना किसी जांच पड़ताल के पुरुष को ही दोषी बना देना उस पर एक छोटी सी शिकायत से पुरुष व उसके परिवार वालों को मानसिक प्रताड़ित करना सामाजिक रूप से प्रताड़ित करना यह कहां तक सही है, लोग आत्महत्या कर लेते हैं मर जाते हैं तब एक-दो दिनों के लिए सब लोग शोक मनाते हैं सब लोग पुरुषों की बात करते हैं और उससे पहले कोई नहीं करता उससे पहले सिर्फ वह प्रताड़ित पुरुष ही घुट-घुट कर मरता रहता है,
जितेन्द्र सनातनी ने पुरुष आयोग बनाने की मांग की है जैसे महिला आयोग है कम से कम कोई तो हो पुरुषों की सुनने वाला पुरुष आयोग बनेगा तो पुरुषों की भी सुनी जाएगी और इस प्रकार से प्रताड़ित पुरुष आत्महत्या नहीं करेंगे दहेज के कारण कुछ महिलाएं भी प्रताड़ित होती हैं पर उनकी सुनी जाती है,
पर जब पुरुष प्रताड़ित होता है झूठे केसों में खर्चे के केस में उसके बाद एलीमनी के केस में तो उसकी कौन सुनता है कोई सुनने वाला नहीं है, जज साहब भी एक तरफा फैसला सुना देते हैं बिना यह जाने की पुरुष कितना कमा रहा है उसकी परिवार की स्थिति क्या है, इस और हमारी सरकारों को भी ध्यान देने की जरूरत है और जो सामाजिक कार्यकर्ता है उनको भी ध्यान देने की जरूरत है और मुझे लगता है कि इन सब के ऊपर महिलाओं को जो जागरूक महिलाएं हैं उनको भी ध्यान देने की जरूरत है सबकी सुनी जाए पुरुषों को यूं ही एक तरफा दोशी न ठहराया जाए समाज में इसका बहुत बुरा प्रभाव पड़ रहा है
समाज में जब भी “पीड़ित” शब्द का जिक्र होता है, तो आमतौर पर हमारी संवेदना महिलाओं, बच्चों या वृद्धों की ओर चली जाती है। लेकिन एक ऐसा वर्ग भी है, जिसकी पीड़ा को अक्सर नजरअंदाज किया जाता है—और वह हैं पीड़ित पुरुष। विशेष रूप से, जब एक पति अपनी पत्नी द्वारा मानसिक, भावनात्मक या कानूनी शोषण का शिकार होता है, तो उसकी व्यथा को समाज शायद ही गंभीरता से लेता है।
यह धारणा कि केवल पुरुष ही महिलाओं के शोषण का कारण बनते हैं, पूरी तरह सही नहीं है। कई पुरुष अपनी पत्नियों के गलत व्यवहार, झूठे आरोपों, घरेलू हिंसा, और कानूनी शोषण का शिकार होते हैं। लेकिन जब वे अपनी परेशानी साझा करने की कोशिश करते हैं, तो समाज उन्हें या तो मजाक में उड़ा देता है या फिर उनकी शिकायत को गंभीरता से नहीं लेता।
पत्नी द्वारा अपने पति का निरंतर अपमान करना, उसे हर वक्त दोषी ठहराना, उसकी भावनाओं को नजरअंदाज करना या जबरदस्ती उसकी इच्छाओं के खिलाफ फैसले थोपना—ये सभी मानसिक शोषण के उदाहरण हैं। कई पुरुष इस वजह से डिप्रेशन, आत्मसम्मान की कमी और अकेलेपन का शिकार हो जाते हैं।
यह एक कड़वी सच्चाई है कि कुछ पत्नियाँ अपने पति पर झूठे आरोप लगाकर उन्हें कानूनी झंझटों में फंसा देती हैं। दहेज कानून (IPC 498A), घरेलू हिंसा कानून, और भरण-पोषण से जुड़े अन्य प्रावधान कई बार निर्दोष पुरुषों के खिलाफ हथियार की तरह इस्तेमाल किए जाते हैं। ऐसे मामलों में पुरुषों को अपनी बेगुनाही साबित करने के लिए लंबी कानूनी लड़ाई लड़नी पड़ती है, जो मानसिक और आर्थिक रूप से उन्हें तोड़ देती है।
जब कोई पुरुष अपनी पत्नी के दुर्व्यवहार की शिकायत करता है, तो उसे “मर्द बनो” या “थोड़ा बर्दाश्त करो” जैसी प्रतिक्रियाएँ मिलती हैं। इससे उनकी समस्या और गंभीर हो जाती है, क्योंकि न तो उनके पास कोई सहारा होता है और न ही न्याय पाने के पर्याप्त साधन।
पुरुषों के लिए भी सहायता केंद्र: जिस तरह महिलाओं के लिए हेल्पलाइन और सहायता संगठन हैं, वैसे ही पीड़ित पुरुषों के लिए भी कानूनी और भावनात्मक समर्थन की व्यवस्था होनी चाहिए।
झूठे मामलों पर कड़ी सजा: यदि कोई महिला झूठे आरोप लगाकर अपने पति को फंसाती है, तो उसके लिए भी सख्त कानूनी सजा होनी चाहिए, ताकि इस प्रवृत्ति पर रोक लग सके।
सामाजिक जागरूकता: समाज को यह समझने की जरूरत है कि हर रिश्ता बराबरी का होना चाहिए, और पुरुषों की तकलीफ को भी उतनी ही संवेदनशीलता से देखने की जरूरत है जितनी महिलाओं की।
हर पति बुरा नहीं होता, और हर पत्नी निर्दोष नहीं होती। सही और गलत का निर्धारण लिंग के आधार पर नहीं, बल्कि तथ्यों के आधार पर होना चाहिए। समाज को इस सच्चाई को स्वीकार करना होगा कि पुरुष भी पीड़ित हो सकते हैं और उन्हें भी न्याय और सहानुभूति की जरूरत होती है। जब तक इस मुद्दे पर खुलकर चर्चा नहीं होगी, तब तक कई निर्दोष पुरुष चुपचाप अपने दुख को सहते रहेंगे।